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… कहीं तेरा हाथ न जला दे
यह फोटो देख रहे हैं आप। एक नेता जी की है। अस्पताल में किसी मरीज को छह केले पकड़ाकर अपने को दानवीर साबित करने की कोशिश। यह फोटो इसलिए जेहन में आई कि इस तरह की तमाम फोटो जब-तब अखबारों में छपती रहती हैं। धार्मिक ग्रंथ कहते हैं कि अगर आप किसी मदद कर रहे हैं तो किसी को पता नहीं चलना चाहिए वर्ना उसमें जो पुण्य का भाव है, वह खत्म हो जाएगा लेकिन यहां न तो किसी को धार्मिक मान्यताओं की फिक्र है और न ही पुण्य कमाने का कोई भाव। यहां तो दानशीलता अब सौ फीसद ‘इमेज बिल्डिंगÓ का जरिया बन चुकी है। नेता जी जब किसी ‘धनपशुÓ प्रायोजित दान करने को चलते हैं तो पहले मुकम्मल व्यवस्था करते हैं कि मीडिया को इसकी जानकारी हुई या नहीं और अखबारों में उनकी फोटो ठीक से छप रही है या नहीं? ‘इमेज बिल्डिंगÓ की ही वह फिक्र थी, जिसने विधायकों को विकास निधि से 20-20 लाख की गाड़ी लेने से रोक दिया और सूबे के सीएम को अपना फैसला पलटने को मजबूर हो जाना पड़ा। जिस रोज सीएम के फैसले के खिलाफ तमाम विधायक खड़े हुए, कुछ पाठकों के फोन आए कि चलिए नेताओं को कुछ शर्म तो महसूस हुई वर्ना बात जब सुविधाओं की हो तो क्या सत्ता पक्ष और क्या विपक्ष, दोनो के सदस्य मेजें थपथपा कर उसे स्वीकार कर लिया करते हैं लेकिन पहली बार हुआ कि उन्हें सरकारी पैसे से 20 लाख की गाड़ी का ‘आफरÓ पसंद नहीं आया। एक विधायक जी से बात होने लगी तो उनके दिल की बात जुबां पर आ ही गई। बोले, सुविधा कौन नहीं चाहेगा, सभी चाहते हैं, लेकिन बात इमेज की है। बीस लाख की गाड़ी तो इलाके का इंजीनियर कमाऊ प्रोजेक्ट में अपनी तैनाती पाने के लिए खड़े-खड़े नकद खरीद कर दे देता है। सीएम के फैसले को स्वीकार करने का मतलब आप कोई भी गाड़ी से चलो, पब्लिक की पहली प्रतिक्रिया होगी कि देखो निधि की गाड़ी से जा रहे हैं। ‘माननीय विधायकÓ यह नहीं चाहते कि उनके दामन पर कोई ऐसा दाग लगे, जो ऊपर से दिखाए पड़े, बाकी तो सब चलता रहा है और चलता रहेगा। नेता-ठेकेदार-अफसरों के गठजोड़ का ही तो नतीजा है कि मानसून की पहली बारिश में ही शहरों में बाढ़ सरीखा माहौल दिखाई पडऩे लगा है। जो पैसा नालों की सफाई के लिए आया था, उसकी बंदरबाट तो हो गई लेकिन नालों की सफाई नहीं हुई तो फिर नहीं हुई। नतीजा क्या है, सबके सामने है। जो लोग सूखा पडऩे और उसके दूरगामी नतीजों से परेशान बारिश की कामना कर रहे थे, वह पहली ही बारिश में ऐसा झेले कि अब बारिश न होने की कामना में जुट गए हैं। उधर सरकारी स्तर पर बाढ़ और सूखे से निपटने की एक साथ तैयारी चल रही है। अफसर-ठेकेदार खुश हैं कि दोनो हाथ में लड्डू। सूखा पड़ा तो सूखे से निपटने को बजट आएगा और बाढ़ आई तो बाढ़ से निपटने को पैसा आएगा। बात नेताओं की तो उन्हें अपनी इमेज की फिक्र है, इसलिए वह खुशी को चेहरे पर नहीं आने दे रहे हैं, मगर खुश तो वो भी हैं, हिस्सा तो उनका भी लगता है। अगर उनके दामन पर छींट पड़ी भी तो उसे धोने को फिर निकल पड़ेंगे किसी अस्पताल में छह केले बांटने को। हालत पर बशीर बद्र का शेर और बात खत्म –
मेरे दिल की राख कुरेद मत, इसे मुस्करा कर हवा न दे।
ये चराग फिर भी चराग है, कहीं तेरा हाथ न जला दे।।
(ठ्ठड्डस्रद्गद्गद्वञ्चद्यद्मश.द्भड्डद्दह्म्ड्डठ्ठ.ष्शद्व)
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