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जनता दर्शन : गर्व का विषय या सोचने की जरूरत
अखबारों के जरिये आपकी नजर उप्र में आयोजित होने वाले जनता दर्शन के फोटोओं पर जरूर गई होगी। वजह इसमें शामिल होने को जुटने वाली बेशुमार भीड़। और इस भीड़ का हिस्सा बनने को कोई भी जोखिम लेने को तैयार लोग। यह भीड़ उन लोगो की है, जो अपनी कहीं सुनवाई न होने के वजह से अब सत्ता शीर्ष को अपनी दरख्वास्त सौंपना चाहते हैं। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद अभी तक सिर्फ दो जनता दर्शन हुए हैं। दोनो बार इसी तरह का नजारा देखने को मिला है। यह सत्तारूढ़ दल के लिए गर्व का विषय हो सकता है कि उसके सीएम के नाम का इतना इकबाल है कि उनको अपनी व्यथा बताने को हजारों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता है। सीएम आम लोगों से मिल रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है लेकिन क्या सिक्के का दूसरा पहलू यह नहीं कि जनता दर्शन में उमडऩे वाली यह भीड़ हमारे सिस्टम की विफलता की गवाह नहीं ? अखिलेश यादव उप्र के लिए नये मुख्यमंत्री हो सकते हैं लेकिन सरकार तो एक निरंतर प्रक्रिया है। स्थानीय विधायक, सांसद या सरकारी तंत्र पहले से अपनी जिम्मेदारी को सही तरीके से निभा रहा होता तो क्या ऐसा मुमकिन था कि हजारों लोगों की यह भीड़ मौका मिलते ही मुख्यमंत्री आवास पर इस तरह टूट पड़ती? ऐसा नहीं कि ये जो हजारों लोग जनता दर्शन में शामिल होने के लिए रात से ही मुख्यमंत्री आवास के बाहर लाइन बनाना शुरू कर देते हैं, वह शौकिया करते हैं। दरअसल ये बहुत गरीब और कमजोर लोग होते हैं (क्योंकि मजबूत लोगों को अपनी बात कहने के लिए कभी इस तरह लाइन नहीं लगनी पड़ती।), लखनऊ आने को किराया की जुगत करने में ही तमाम लोगों को कर्जदार बन जाना पड़ता है और अगर आप उनकी दरख्वास्तों पर नजर डालें तो पाएंगे, उनकी जो समस्या है, वह स्थानीय स्तर पर ही हल हो सकती है। अगर स्थानीय प्रशासन संवदेनशील हो तो उसके लिए किसी तरह की सोर्स-सिफारिश की जरूरत नहीं। अगर नहीं है तो स्थानीय विधायक या सांसद की थोड़ी सी पैरोकारी से काम बन सकता है। लेकिन किसे किसकी फिक्र? जनप्रतिनिधि सत्ता दल के हों या विपक्ष के, चुनाव जीतने के बाद उनकाएजेंडा बदल जाता है। देखिए न, विधानसभा के गलियारों में झक सफेदपोशों की भीड़। उनके साथ चलने वालों में कौन होता है? बस ठेकेदार, इंजीनियर और डाक्टर। ठेकेदार को बड़ा ठेका चाहिए, इंजीनियर-डाक्टर को बढिय़ा तैनाती। विधानसभा के गलियारे में टहलते किसी जनप्रतिनिधि के हाथ में मैंने किसी गरीब का एजेंडा नहीं देखा। मंत्रियों के सामने उन्हें ज्यादातर किसी डाक्टर या इंजीनियर को अपना रिश्तेदार बताकर पोस्टिंग के लिए चिरौरी करते ही पाया है। जाहिर है कि आम आदमी की मदद में जब कोई न खड़ा होगा तो उसे जब भी जनता दर्शन जैसा कोई प्लेटफार्म दिखेगा, वह इसी तरह टूट पड़ेगा। सत्तारूढ़ दल का दावा है कि जो लोग भी जनता दर्शन में पहुंच रहे हैं, उनकी हर एक की दरख्वास्त पर कार्रवाई होगी। यह अच्छी पहल हो सकती है लेकिन इस दावे से एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि अगर हम महीने में होने वाले दो जनता दर्शन में 20 हजार लोगों की शिकायतों को निस्तारित करने का तंत्र विकसित कर सकते हैं तो फिर व्यवस्था में यह सुधार क्यों नहीं कर सकते हैं कि ऐसा नौबत ही न आए कि लोगों को अपनी बात कहने को इस तरह उमडऩा पड़े? क्या यह मुमकिन नहीं कि मंत्रीगण और प्रशासन के लोग स्थानीय स्तर पर इसी तरह के जनता दर्शन के कार्यक्रम आयोजित कर लोगों की समस्याएं सुने और उनका निस्तारण करें? सूरत-ए-हाल पर वसीम बरेलवी का शेर और बात खत्म-
सब अंधेरों से कोई वादा किए बैठे हैं,
कौन ऐसे में मुझे शमा जलाने देगा।।
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